लाॅकडाउन एक जकड़न है
लाॅकडाउन एक जकड़न है।कोरोना महामारी में, उथल-पुथल की वेला में,मन अधीर, तू धीर बन! भाग्योदय का यही समय है।हमसब के जीवन का सच,एक नई ऊर्जा का स्रोत, है सत्तर दिन का लाॅकडाउन। एक भूचाल आ गया जीवन में, आर्थिक ढ़ांचा चरमरा गयी विश्व में,कोरोना संकट वैश्विक महामारी, इस कदर छा गयी।श्वासें, धड़कने रूकने लगी। हाहाकार मच गया चारों ओर, आर्थिक प्रगति इस कदर रूकी,लोग बेहाल हो गये। जैविक विषाणु ने इस तरह कहर ढाया,लोग भुखमरी से बेहाल हो गये। मौत का साया सिर पर मंडराने लगा। विद्यार्थी, मजदूर,स्वदेशी, विदेशी ।कोरोना संक्रमण का कहर हो गये। मौत का आलिंगन करने के लिए, चीन के लैब में बना विषाणु, जीवन को क्षत-विक्षत करने लगा। प्रवासी मजदूर से लेकर, विद्यार्थी वर्ग की मजबूरी हो गयी दयनीय, विदेश में बसे लोग भी लौटने लगे स्वदेश। विज्ञान की औद्योगिकरण, तकनीकिकरण, प्रयावरण को बिगाड़ दिया। जैविक ऊर्जा स्त्रोत उजड़ने लगा । आर्थिक मंदी का दौर इस तरह हावी हुआ कि लोग लाइन लगाकर राशन पानी लेने लगें । घंटो खडे़ होकर लाइन में लगकर भोजन के लिए इस कदर मारे - मारे फिरने लगे । क्या यह कोरोना संक्रमण जीवन को पूरी तरह नष्ट कर देगा । जीवन क्या बिलख - बिलख कर सड़कों की कतारो में खो जायेंगी ।
संक्रमण इस कदर बढ़ा कि सेनिटाइजर और मास्क की खपत बढ़ गयी। लोग साधरण सर्दी , खांसी , जुकाम से भी घबराने लगे। जीवन में इस कदर उदासी , सन्नाटा छा गयी। जीवन थम सा गया ।
क्वारटांइन में रहकर लोग और भी बेहाल हो गयी मास्क एक अनिवार्य वस्तु हो गयी श्वशन से संक्रमण का ऐसा रिश्ता बना कि लोग घरों में रहने के लिए मजबूर हो गए । सुरक्षित रहे ,घर में रहे । यह एक नारा बन गया । सुरक्षा की परिभाषा बदल गयी जीने का रंग ढंग बदल गया। दूरियां मजबूरियां बन गयी क्या अपने क्या पराये।
दूरियां इस कदर बढ़ी कि विसंगतियां जीवन में उत्पन्न होने लगी। गृह-कलह बढ़ाने लगे।अर्थ की नई-परिभाषा सभी सरकारें गढ़ने लगी। पैकेज पर जीने वालों की तनख्वाह कटने लगी। लोगों में बेरोजगारी बढ़ने लगी। लोग दूसरे राज्यों से, अपने प्र देश, गांव लौटने लगे। हमारे शहर खाली हुए। गांव उजड़ा चमन बसने लगे। कृषि कार्य की प्रगति को , विकास से जोड़ा जाने लगा। कृषि जीवन की आधारभूत संरचना मानी जानी लगी। शहर से लौटते लोग, गांव को गुलजार करने लगे। सरकारें लोगों को बचाने की खातिर,नयी-नयी अर्थनीति लाने लगी। सभी क्षेत्रों को फिर नये से परिभाषित करने लगे। भुखमरी और जीवन -रेखा एक ही डोर में बंध गयी। लाॅकडाउन- एक गतिमय जीवन,को स्थिर कर गयी। हमारी जिंदगी घरों में सिमट के रह गयी।कोरोना का रोना तो खत्म होने का नाम हीनहीं लेता , जीवन जीने की गतिविधि बदल गयी। सांसों से सांसों की गति की रफ्तार कम हो गयी! हाय! रे कोरोना तू ऐसी विपदा बनकर आयी,कि सांसों की गति अवरूद्ध,करती चली गयी। सांसों का चलना ही जीवन की गति। जीवन अबाध गति से चलती रहती है। क्षितिज के इस पार से उस पार तक,हम सब सहयात्री हैं।सफर में जाने नित्य तैयार रहते, कहीं कोई विघ्न नहीं, सफर अबाध गति से जारी रहती है। क्रियाशीलता ही जीवन की गति है।हम सब अबाध रूप से बढ़ते रहते हैं। - रेखा सिन्हा

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