एक कहानी:हिन्दी

 

एक कहानी:हिन्दी



रमुआ बस की सीट पर बैठा खिड़की से बाहर सिर निकाले एकटक सड़क को निहारे जा रहा था, उसे लगता मानो सड़क तेजी से पिछे की ओर भागती जा रही थी। रमुआ के मन मस्तिस्क मे पहली बार बस में यात्रा का रोमांच अदभूत खुशीयों का संचार कर रहा था। बीती सारी रात वह अकेले शहर जाने की मानसीक तैयारियों में खोया जागता रहा था। पुरी रात उसके कान में माँ को कहे डाॅक्टर साहेब के शब्द गुंज रहे थे-‘‘अरे बुधनी तु डर मत, अब यह बड़ा हो गया है बच्चा नहीं रहा, पन्द्रह साल की उम्र में तो हम मामा घर कलकता अकेले आया जाया करते थे। कहाँ ढ़ाई तीन सौ आदमियों का हमारा छोटा सा गाँव और कहाँ करोड़ों की आबादी वाला वह महानगर पर हमारे बाबूजी को विश्वास था कि बेटा अकेला घूम आएगा तो बस घुम आये थे हम, फिर यह तो छोटा शहर है।’’
डाॅक्टर साहेब के यह कहते ही, माँ अपने चेहरे पर उतरती भय की लकीरें छिपाती हुई बोली थी- पर डाक्टर बाबू यह बेचारा कुछ बोल भी तो नहीं पाता।’’
माँ की बात पुरी होने से पहले ही डाॅक्टर साहेब बोल पड़े थे- अरे तु
इसकी चिन्ता मत कर, मैं सारा उपाय कर दूँगा, फिर उसे देखते हुए बोले थे- ‘‘देख
बेटा सुबह वाली बस जिसमें तुमको मइया बिठाएगी वह जहाँ तक जाएगी तुम्हें जाना है, अंत में एक शहर आएगा, वहाँ दोनों तरफ बड़े-बड़े मकान दिखेंगे एवं भीड़-भाड़ होगी, बड़ी मोटर कार, रिक्सावालों की भीड़ होगी, वहीं एक चैराहे पर जहाँ गाँधीजी की बड़ी मूर्ति सड़क के बीचो-बीच खड़ी होगी, सभी यात्रियों के साथ तुम उतर जाना, मेरी क्लीनीक से उस किराने की दुकान तक जाने के बाद देखना एक बड़ा अस्पताल है बस, वहाँ जाकर किसी भी डाॅक्टर या नर्स से मेरी चिठी दिखाना, तुम्हें वहाँ डाॅक्टर देख लेंगे और मुफ्त में दवा भी दे देगें, उसे लेकर वहाँ से थोड़ी दुर आगे बढ़ना एक बड़े मैंदान में कई बसें खड़ी होगी वहाँ जिस बस से तुम जाओगे उसी में बैठ जाना और फिर वापस आ जाना।’’ डाॅक्टर साहेब की बातें सुनता वह बार-बार सहमति में सिर हिलाता रहा था, उसका दिल बल्लीयों उछल रहा था।
आज पहली बार उसे अपने पेट के इस दर्द के चलते शहर जाने का अवसर मिला था।
वह पीछे भागती सड़क को देखता मन की तीव्र गति से आगे उड़ा जा रहा था कि तभी कंडक्टर ने डाँटते हुए उसे कहा था- ’’अरे लड़का सिर भीतर कर।’’ उसने सिर भीतर कर लिया था पर डाँट का कोई असर उसके झुमते मन पर ना पड़ा था क्योंकि यह तो उसकी दिनचर्या थी। बचपन से ही वह माँ के साथ उसके मालिक के घर जाया करता
था जहाँ डाँट फटकार और कभी-कभी तो मार भी खानी पड़ती थी। गाँव वाले सभी उसे गुंगा कहकर बुलाते थे, सिवाय एक उसकी मइया के, ‘‘रमुआ’’ तो उसे बड़े प्यार से उसकी मइया ही कहा करती थी। पिता ज्यादा शराब पिने से दस वर्ष पूर्व ही मर चुके थे। रात को सोये तो सुबह हुई ही नहीं, मरने के बाद मइया ने समझाया था - ‘बेटा कभी शराब मत पीना, यह जहर होता है जो हमारी सरकार हम गरीबन के लिए बनवाती है, और हमारे खुन पसीने की कमाई को उसमें खर्च करवाकर उसके टैकस से धन इकठा कर देश का विकास करती है। उसने मइया के चेहरे पर ये बातें कहते-कहते जैसे क्रोध के भाव उभरते देखा था वह और कभी नहीं देखा।
रमुआ कंडक्टर को बगल में खड़ा देख अपने पाँकेट से कागज के दोे टुकडे़ निकाल लिया था जिसमे से एक बड़ा वाला कागज डाॅक्टर साहेब ने शहर पहुँचकर अस्पताल में देने को कहा था तो दूसरे छोटे कागज में कुछ लिखते हुए
उसे समझाया था- ‘देख रमुआ, इस छोटे कागज में ऊपर मैंने ‘अस्पताल’ लिखा है, यदि परेशानी हो तो सड़क के किनारे बनी बिल्डीगांे के उपर देखना जहाँ बोर्ड पर यह लिखा होगा बस समझ लेना वहीं जाना है तुम्हें इलाज के लिए, और यह ना दिखे तो निचे लिखे शब्द को देखना यहाँ ’दवाखाना’ लिखा है, अस्पताल के बाहर दस पन्द्रह दुकानांे पर ऐसा लिखा होगा, वहाँ जाकर पुछ लेना वे तुम्हें अस्पताल का पता बता देंगे।’ दोनों कागजों को अपनी शर्ट की पाकेट में रखते हुए उसने तीरछी नजर से कंडक्टर को देखा था जो आगे की सीट पर जाकर बैठ गया था। रमुआ ने अहिस्ता से अपना सिर खिड़की के बाहर निकाला और फिर वह पिछे भागती सड़क के साथ तेजी से शहर की ओर भागता जा रहा था। उसके कानो में डाक्टर साहब के कहे शब्द गुंजने लगे थे - ‘रमुआ तुम्हें शहर से अपना इलाज कराके आना है। फिर देखना इस बार मैं तुम्हें सब कुछ पढ़ना लिखना सीखा दूँगा।’’ उनकी यह बात सुन वह खुशी से झूम उठा था। हाँ, डाक्टर साहब ने हीे उसे उसका नाम ’रमुआ’ लिखना सिखाया था। उसे विश्वास था कि वो शहर से लौटकर सब कुछ पढ़ना लिखना सीख जाएगा। 
दो घंटे बाद बस शहर की सड़क पर रेंग रही थी, खलासी गेट से बाहर सिर निकाल चिल्लाए जा रहा था - ’ए रिक्सा, ऐ ठेला, चल किनारे चल, ठीक है, ठीक है’ कहता हुआ  वह हाथ से दरवाजों के बाहर थपकीयां लगा रहा था। ड्राइवर लगातार हार्न बजाता आगे बढ़ रहा था। सवारीयां अपना-अपना सामान संभालने लगी थी और रमुआ भी खिड़की के बाहर चैराहे पर गाँधीजी की मूर्ति को तलाशता हुआ कागज का वह टुकड़ा हाथ में ले चुका था जिसपर डाक्टर साहेब ने ’अस्पताल’ लिखा था। चार घंटे के इस सफर के बाद पहली बार रमुआ की धड़कनों में भय की लकीरें खींचने लगी थी। वह बार-बार मन हीे मन अपने हौसले को बढ़ा रहा था- ‘‘आज मैं अस्पताल में इलाज करवाकर वापस गाँव लौटूगा तो डाक्टर साहेब बहुत खुश होंगे और मइया का डर भी खत्म हो जाएगा।’’ सहसा ही उसे बस में बिठाते समय माँ की कही बातें याद हो आई - ’बेटा पैसे कम थे इसलिए मैं साथ नहीं जा पा रही हूँ, पर तू तो मेरा बहादूर बच्चा है, अकेला भी दिखाकर आ जाएगा और हाँ, जैसा डाॅक्टर साहेब ने बताया वैसा ही करना और कोई परेशानी हो तो फिक्र ना करना इसी बस से वापस आ जाना’’। माँ की बातें याद करता कागज का टुकड़ा मुट्ठी में भींचे वह गाँधीजी की मूर्तिवाले चैराहे पर यात्रियों के साथ उतर चुका था।
सड़क के किनारे वह बड़ी होशियारी के साथ दोनों तरफ देखता हुआ आगे बढ़ रहा था। हर एक मकान और दुकान के बाहर लगे बोर्ड पर लिखे शब्दों से डाॅक्टर साहेब के द्वारा लिखे शब्दों का मिलान करता आगे बढ़ता चला जा रहा था कि सहसा ही उसे डाॅक्टर साहेब की कही बात याद आई - ’सभी यात्रियों के साथ तुम उतर जाना, मेरी क्लीनीक से उस किराने की दुकान तक जाने के बाद बाईं ओर देखना एक बड़ा अस्पताल है’’ सहसा ही उसके कदम ठिठके, उसे आभास हुआ कि वह तो काफी दूर चला आया है। तेज धूप की गर्मी से वह पसीने में लथपथ हो चूका था, उसे जोरो की प्यास लगी थी। उसने देखा सड़क किनारे एक चापानल पर मजदुर भार में पानी भर रहा था, वह माथे का पसीना पोंछता प्यासी नजरों से उसे देखता खड़ा था पर शहर के मजदूरों का दिल भी गाँवों के मजदूरों सा नहीं रह पाता, वह दोनो डीब्बों में पानी भरता रहा अैार रमुआ प्यासा खड़ा उसके जाने का इंतजार करता रहा, उसके जाने के बाद उसने स्वयं चापानल चला-चलाकर चूल्लू भर-भरकर पानी पिया और फिर पसीना पोंछता हुआ थका-हारा खड़ा होकर सुस्ताने लगा, कि तभी उसके मस्तिस्क में बिजली सी कौंधी’’ अरे मैं किधर से आया और किधर जा रहा था? उसने परेशान हो दोनों तरफ देखा, उच्चे-उच्चे मकान और फुटपाथ पर दोनों ही तरफ खोमचे वालों की भीड़ थी, वह परेशान हो गया, पर एक बार फिर माँ के शब्द उसके कानों में गुजें - ’तु तो मेरा बहादुर बच्चा है, अकेला भी दिखवाकर आ जाएगा’ माँ के शब्दों ने उसे हौसला दिया वह मन ही मन बुदबुदाया - ’हाँ माँ, मैं अकेला ही दिखवाकर लौटुँगा’’ उसने निश्चय किया कि वह पहले जिधर मुँह है उधर आगे की तरफ जाएगा और यदि थोड़ी दुर तक गाँधीजी की मूर्ति ना दिखी तो वापस पिछे की ओर आता चला जाएगा, फिर गाँधीजी की मूर्ति ढुंढकर वहाँ से दोनों तरफ डाॅक्टर साहेब के लिखे शब्दों वाला बोर्ड ढुंढ निकालेगा।
वह ढृढ विश्वास लिए आगे बढ़ता रहा। दुपहरिया तप रही थी, कडी धूप ने पेट में गये पानी को शीघ्र ही पसीना बना निकाल दिया था। अब प्यास के साथ-साथ उसे भूख भी लगने लगी थी, पर उसने निश्चय किया कि अब वह पानी ढुंढ़ने की बजाय पहले अस्पताल ढंुढ़ेंगा, वह थका हारा तेज कदम से आगे बढ़ता रहा और फिर काफी दूर आकर सोचने लगा था कि वह गलत दिशा में चला आया है, लगता है गाँधीजी की मूर्ति काफी पिछे छुट चूकी है, वह वापस घूमा और तेज चलता हुआ हाँफता सा आगे बढ़ने लगा, उसका शरीर पसीने से नहा चुका था, उसे महसूस हुआ कि वह रूका नहीं तो बेहोश होकर गिर पड़ेगा। उसे जिधर जाना था उस दिशा में मुँह कर बैठ गया, दस मिनट सुस्ताने के बाद वह आगे बढ़ा तो उसे दूर वही मजदूर चापानल से पानी भरता दिखाई दिया। उसने चैन की साँस लेते हुए वहीं पहुंच पानी पीने का निश्चय किया। चापानल के पास पहुंच उसने राह ना भटकने की चालाकी दिखाते हुए अपनी चप्पलें उस दिशा में खोली जिधर उसे जाना था, मजदूर जब तक अपने डिब्बों को भरता उसने पाकेट में हाथ डाल माँ कीे दी हुई दो रोटियां निकाली और खाकर पेट पर हाथ फेरते हुए एक लम्बी डकार ली, डकार लेतेे हुए उसे माँ के द्वारा अक्सर कहे जाने वाले शब्द याद हो आए थे- ‘‘बेटा गरीब के पास जब पेट भर भोजन न हो तो वह 
जबरदस्ती कुछ डकारंे लेकर अपनी भुख को मिटाने का एहसास कराता है और तब सचमूच उसे लगता है मानो पेट भर गया, गरीब का सबसे बड़ा धन संतोष ही होता है बेटा,वर्ना अमीरों में संतोष कहाँ, जितना आता है भूख उससे दुनी बढ़ती चली जाती है, इसलिए ना उनमें इमान बच पाता है ना धर्म, फिर इमान धर्म के अभाव और डर में उनका पुरा जीवन मंदिरों में भटकता नष्ट हो जाता है’’।
रमुआ ने देखा मजदूर पानी के डिब्बे लिए चला जा रहा था। वह आगे बढ़कर एक बार फिर स्वयं चापानल चला चूल्लू भर-भरकर पानी पीता रहा और फिर आत्मसंतोष के साथ चप्पले पहन आगे बढ़ गया। गरीब का पेट भर जाए तो निश्चितता का बोध स्वतः आ जाता है, वह भी निश्चित हुआ गाँधीजी की मूर्ति ढुंढ़ता आगे बढ़ता चला जा रहा था। लगभग पौन घंटे बाद उसे दूर गाँधी जी की मूर्ति दिखाई दि तो उसे अपनी बुद्धिमानी पर गर्व हो आया, वह तेज चाल में चलता हुआ वहाँ आया और फिर उसने बुद्धिमानी के साथ यह निश्चय किया कि जिधर गाँँधीजी का मुँह है पहले वह उधर अस्पताल खोजेगा और न मिला तो फिर पीठ की तरफ। निश्चय कर वह मुँह वाली दिशा में आगे
बढ़ा, उसने अनुमान लगा लिया था कि डाक्टर साहेब की क्लीनीक से किराने वाली दुकान ज्यादा से ज्यादा सड़क किनारे खड़े बिजली के दुसरे खंभे की दुरी तक होगी। वह एक बार फिर कागज का टुकड़ा हाथ में लेकर उसमें लिखे शब्द ’अस्पताल’ को देखते हुए सभी मकानों के बाहर बोर्ड पर लिखे शब्दों में उसे ढुंढ़ने लगा, दूसरे खंभे तक पहुंच उसे विश्वास हो गया कि अस्पताल हो न हो गाँधीजी की पीठ वाली तरफ ही होगा। विश्वास से भरा वह जल्दी जल्दी चलता हुआ चैराहे पर पहुंच पीठ वाली दिशा मे आगे बढ़ने लगा, हर मकान और दुकान पर लगे बोर्ड पर वह ’अस्पताल’ वाले शब्द को ढुंढ़ता रहा पर अंततः निराशा ही हाथ लगी। अंततः उसने डाॅक्टर साहेब के निचे लिखे शब्दों का मिलान करना चाहा और फिर गाँधीजी के दोनों तरफ दूर -दूर तक भटक आया पर उसे ’दवाखाना’ के वे शब्द भी ना दिखे। अब वह निराशा के चंगुल में था।
आज पहली बार उसे अपने गुंगे होने और अशिक्षा का दुख इतनी गहराई से हुआ था। असफलता ने उसके भीतर के आत्मविश्वास को घायल कर दिया था, अंततः उसने महसूस किया कि वह बहुत थक चूका है, उसके कदम लड़खड़ाने लगे हैं, पेट में हल्का-हल्का दर्द फिर से उठ खड़ा हुआ है, उसकी आँखों में आँसू छलछला आए। बड़े भारी मन से उसने निश्चय किया कि अब वह वापस गाँव लौट जाएगा कि तभी उसके मस्तिस्क में बिजली सी कौंधी ‘‘पर उसे वह बस कहाँ मिलेगी और नहीं मिली तो वह वापस गाँव कैसे जाएगा? उसे तो गाँव का नाम लिखना तक नहीं आता और न ही वह किसी को बता सकता है, और डाक्टर साहेब ने भी इस कागज पर उसके गाँव का नाम नहीं लिखा है।’’ इन प्रश्नों के दिमाग में कौंधते ही उसे घबराहट महसूस होने लगी थी, मन बैठने लगा था, माँ का चेहरा उसकी आँखों के सामने घूमने लगा था।
घबराहट में बौखलाया सा वह गाँधीजी की पीठ वाली दिशा में भागने सा लगा था क्यांेकि मुंह वाली दिशा में तो वह अस्पताल ढुंढ़ता बहुत दूर तक जा चूका था जहाँ उसे कोई पड़ाव नहीं दिखा था, वह घबराया हुआ भागा जा रहा था।थोड़ी ही देर में वह बस पड़ाव के भीतर के मैंदान में लाल रंग की पीली धारी वाली उस बस को खोजता फिर रहा था, पर वह बस उसे नहीं दिख रही थी, उसकी आँखों से आँसु लगातार बह रहे थे, कुछ ठेला, खोमचों वालों ने रोता देख उसकी सहायता करनी चाही पर वह किसी को अपनी बात समझा ना पाया था, अंततः एक दयालु  सज्जन ने उसे बड़े प्यार से पूछा था ‘‘बेटा, मैं जानता हूँ तुम बोल नहीं सकते और शहर के बाहर से आये हो, पर मैं तुम्हारी सहायता करूँ भी तो कैसे, कुछ ईशारों से ही बताओ।’’ उसकी प्यार भरी बातें सुन उसने डाँक्टर साहेब के दिये दोनों कागज उसके हाथों में पकड़ा दिए थे। सज्जन ने उन्हंे पढ़ अनुमान लगाते हुए पूछा था - ‘‘तो तुम अस्पताल में इलाज करवाने आए थे।’’ रमुआ ने हाँ में इशारा करते हुए उसे समझाया कि वह अस्पताल खोज नहीं पाया, इस पर सज्जन ने पूछा - ‘‘तो क्या मैं तुम्हंे अस्पताल पहुँचा दूँ?’’ रमुआ ने हिम्मत करते हुए हाँ में सिर हिलाया, तो उसने उसे पीछे आने को कहा और सौ कदम चल कर वह एक बड़ी बिल्डींग के सामने खड़ा हो ईशारा करता हुआ बोला था - ‘‘यही अस्पताल है, पर अब तो पाँच बज चूके हैं डाक्टर शायद ना मिले जाओ अन्दर पता कर लो। डाक्टर ना हो तो यह कागज किसी नर्स को दे देना वह तुम्हें भर्ती कर लेगी।’’ रमुआ ने हाथ जोड़कर उसका शुक्रिया अदा किया और गेट के उपर एकटक वो शब्द ढुंढ़ता रहा जो डाक्टर साहेब ने लिखे थे। बोर्ड़ पर उन शब्दों का नामो निशान ना था।
वह मासूम यह समझ चूका था कि आज अस्पताल की खोज में हुई देरी की वजह से उसकी बस जा चुकी  अब, उसने निश्चय किया कि आज वह अस्पताल में ईलाज करवा कर कहीं भी रह लेगा और फिर कल सुबह ही बस स्टैड पहुँचकर बस के आते ही उसमें बैठकर वापस अपने गाँव चला जाएगा।
रमुआ आज रात माँँ को होनेवाली बेचैनी को महसूस करता हाॅस्पीटल में दाखिल हुआ था, उसने देखा वहाँ चारो तरफ मरीज और उसके घरवालों की भीड़ थी, उसने एक दो बार हाॅस्पीटल के कुछ कमरों में दाखिल होना चाहा था पर डाॅक्टर और नर्स ने उसे झिड़कते हुए दूर कर दिया था। अंततः उसने एक वृद्ध नर्स के पाँव पकड़ अपने गुंगेपन का अहसास कराते हुए डाक्टर साहेब का वह खत दिखाया था, जिसे पढ़कर उसने बताया था कि ये डाॅक्टर तो दिन के दो बजे तक ही यहाँ रहते हैं अब तो शाम हो चुकी है, तुम कल दस बजे आना और उस सामने वाले चेम्बर में दिखा लेना। वो वहीं बैठते हैं।’’ कहकर बुढिया चली गई थी पर रमुआ की परेशानी बढ़ती जा रही थी उसके पास लौटने के भाड़े भर के पैसे थे, माँ की दी हुई रोटियां वह खा चूका था जो भाग दौड़ में कब की हजम हो चुकी थी, इधर पेट का दर्द भी बढ़ने लगा था, चिंता और पेट की पीड़ा में उसकी आँखों से आँसू बहने लगे थे, वह क्या करे, किसे और कैसे अपनी पीड़ा समझाए, समझ नहीं पा रहा था, वह बढ़ते दर्द में पेट थाम कभी बरामदे में लेटता - बैठता, तो कभी किसी नर्स के पास पहुंच इशारे करता पर कोई उसकी बात समझ ना पाता, कोई उसे भुखा समझते तो कोई भीखारी और वह अंधेरी होती रात के साथ अपने दर्द को बढ़ता महसूस करता मुटठीयां भींचे बिलखता रहा था। रात्रि के बारह बज रहे थे, उसकी पीड़ा बढ़ गई थी, वह दर्द में छटपटाता आती जाती नर्सों की ओर देख दबी जुबान में उं उं कर बुलाने का प्रयास करता रहा, पर किसी ने उसपर ध्यान ना दिया, कोई क्षण भर को ठिठकी भी तो ’’अरे कौन है इस 
पेशेंट के साथ जरा देख लो भाई’’ कहती हुई आगे बढ़ जाती थी। जिंदगी देने वाले पेशों से जुड़े लोगों की बेरहमी को महसूसता रमुआ अपने पेट पर  दबाव बढ़ाए जा रहा था- उसकी माँ के शब्द अब भी उसके कानों में गुंज रहे थे - ‘‘बेटा गरीब की गरीबी उसकी अशिक्षा और अमीरों की हेवानियत है, जिसे इस देश की सरकार गढ़ती और पालती-पोसती है वर्ना क्या तेरे बाबूजी पढ़ लिखकर कोई साहेब ना बन जाते, हाँ, वो कई बार बताते थे कि वो पढ़ना चाहते थ,े पर गाँव में कोई स्कूल ना था, और शहर में पढ़ने की उनकी औकात ना थी, उपर से गरीबी और शोषण विरासत में मिला था, फिर भी पुरा ककहारा सीखे थे वा,े अपना नाम लिखते और हिदीं की किताबें भी पढ़ लेते थे, फिर कुछ ना कर पाने के गम और उनके बाबूजी के लिये कर्ज ने उन्हें इन जमीदारों का बंधूवा मजदूर बनाकर रख दिया था, बस इसी छटपटाहट में दारू पी पीकर मर गये, मरते वक्त भी एक ही बात बोलते रहे, इसे पढ़ाना जरूर, पर किस्मत का लिखा, कौन जाने तुम बड़े हुए तो गुंगे और फिर दादा का जो कर्ज बाबूजी ना चुका पाए वो मैं बंधुआ मजदूूरन बन कर चुका रही हूँ।’’ माँ के आँसु और दर्द को याद करते-करते पेट की असीम वेदना ने कब रमुआ की सांसे ठंडी कर दी, उसे पता ही न चला। सुबह के ग्यारह बज रहे थे। अस्पताल के भीतर बुधनी और डाॅक्टर साहेब तेज कदमों से डाॅक्टर तिगगा के चंेबर की ओर चले जा रहे थे, कि तभी बुधनी के कदम ठीठके थे उसने देखा तीन चार पुलिस कर्मी के साथ अस्पताल के डाॅक्टर और नर्स एक लाश को घेरे खड़े थे। एक बुढ़ी नर्स पुलिस को बता रही थी - ‘‘बेचारा गंुगा था सर, कल शाम आया था, किसी डाॅक्टर की चिटठी दिखा रहा था डाॅ0 तिग्गा के नाम, मैने बताया था वो दो बजे तक चले जाते हैं कल सुबह दस बजे आना, और फिर मैंने इसे देर रात तक यहीं सोते देखा था, शायद यह तब तक मर चुका था पर मैं समझी सो रहा है।’’ बुढ़ी नर्स की बात खत्म होने के पहले बुधनी उन्हंे लगभग धकेलती हुई रमुआ के पास पहुंची और फिर दहाड़ मार कर उस पर गिर पड़ी।
रमुआ मेरा बच्चा, नहीं-नहीं तु नहीं मर सकता रमुआ, अपनी मइया को छोड़कर नहीं मर सकता रे, ए डाँक्टर बाबू -यह क्या हो गया- आप तो कहते थे एकदम ठीक हो जाएगा- पर यह-यह तो मर गया- मेरा रमुआ -मर गया डाॅक्टर बाबू -मर गया-’’ और फिर सबने देखा बुधनी गश्त खाकर बिल्कुल शान्त हो रमुआ की बाहों में लुढक गई।
डाॅक्टर चिल्लाया ‘‘जल्दी करो इसे आईसीयू में लेकर चलो।’’ डाॅक्टर साहेब फटी आँखों से सबकुछ देखते रह गए थे, वो कभी रमुआ की लाश को देखते तो कभी नर्स के कंधे पर लटकी बुछनी के शरीर को।
आधे घंटे बाद वह पोस्टमार्टम रूम के बाहर बेजान हुए बैठे थे- डाॅक्टर तिगगा उनके हाथों में दस रूपये के साथ वो दो कागज के टुकड़े थमा रहे थे,जिनमें एक में उनके नाम का पत्र था तो दूसरे में अस्पताल और दवाखाना लिखा था।
डाॅ0 तिगगा ने खेद प्रकट करते हुए कहा था - ‘वेरी साॅरी डाॅक्टर वेरी बैड लक, जाने क्यों यह बच्चा कल सुबह पहुंचकर भी दो बजे तक अस्पताल में नहीं पहुंच पाया। काश मैं उसे बचा पाता, तो उसकी माँ की भी यूं मृत्यु ना होती। अच्छा डाॅक्टर एक सीरीयस पेशेंट का आपरेशन है, मैं चलता हॅँू। ....... आपरेशन में दो घंटे लगेंगे आप चाहंे तो थोड़ा विश्राम कर सकते हैं।
डाॅक्टर साहेब ने डबडबाई आँखों से उनकी बातों में सहमति जताते हुए अपने कदम हास्पीटल से बाहर की ओर बढ़ाये थे, डाॅ0 तिगगा आपरेशन कक्ष की ओर चले जा रहे थे।
दस मिनट बाद डाॅक्टर साहेब अस्पताल के बाहर खड़े सौ कदम दूर गाँधीजी की मूर्ति को देखते सोच रहे थे साहूजी ने कल शाम बताया था कि बस दस बजे गाँधी चैराहे पर पहुंच गई थी और रमुआ उनके आगे -आगे उतरा था तो फिर वह शाम पाँच बजे अस्पताल क्यों पहुंचा? आखिर इतनी देर वह कहाँ रहा? सहसा ही उनका ध्यान अस्पताल के साइन बोर्ड पर गया जिसपर लिखा था ब्पजल भ्वेचपजंसए वे चैंके थे,उन्होंने रमुआ को दिया कागज निकाला जिसपर उन्होंने ‘‘अस्पताल’’ लिखा था।
‘‘ओह माई गाँड’’-उन्होंने अपने माथे पर हाथ की तेज चपत जड़ते हुए कहा था - ‘‘तो इसलिए रमुआ....’’ और आगे वे कुछ कह न पाए। उन्होंने देखा निचे ’दवाखाना’ लिखा था, उन्होंने चारों तरफ नजरें दौड़ाई, अस्पताल के दोनों तरफ दवा की कई दुकानें थी, पर सभी के बोर्ड पर अंग्रेजी में नाम के  साथ Medical Store लिखा था।

डाॅक्टर साहेब के चेहरे पर आक्रोश और घृणा के भाव एकाएक छलक आए, वह लगभग चीख उठे-’’धत तेरी की...., वाह रे सरकार और वाह रे हिन्दुस्तानी लोगों, हिन्दी का नामों निशान नहीं दिखता तुम्हारी रगो में।’’ उनकी
आवाज सुन पास से गुजरते हुए एक सज्जन ने उन्हें परेशान देख असमंजस की स्थिति में कहा था-हाँ सर आज हिन्दी दिवस है, वो सामने मुख्यमंत्रीजी की सभा हो रही है।’’
कहता हुआ वह आगे बढ़ गया था। डाॅक्टर साहेब का ध्यान अब सड़क पर सामने लगे मंच की ओर गया था, जहाँ पर पाँच सात सौ लोगों की भीड़ को मुख्यमंत्री संबोधित कर रहे थे-‘‘हमें हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में आत्मसात करना होगा, सभी सरकारी कार्यालय में हिंदी का प्रयोग सुनिश्चित करना होगा, तभी हम अपनी इस गोरवशाली भाषा को उसका उचित सम्मान दिला पाएगें। आइए, हम आज हिंदी भाषा को सेलीब्रेट करते हुए हिंदी के प्रति आॅनेस्ट होने का संकल्प लें।’’
‘‘हिंदी भाषा को सेलिब्रेट करेंगेे और हिंदी के प्र्रति आॅनेस्ट होंगे, वाह रे इस देश के नेता, डुब मरो ...... आजादी के 67 साल बाद भी तुमलोगों ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा की संवैधानिक मान्यता नहीं दी। धिक्कार है तुम और तुम्हारी इस राजनिति पर, पहले देश अंग्रेजों का गुलाम था, अब अंग्रजियत का गुलाम है...... और धन्य है इस देश की जनता जो अंग्रेजी में मरी जा रही है, ना नाम हिन्दी में लिखते हैं ना काम। ओह...... मेरी मातृ भाषा, राष्ट्रीय गौरव की भाषा - हिन्दी, हम भारतीय कब तुम्हें उचित सम्मान दिला पाएंेगे? ’’ डाॅक्टर साहब बुदबुदातेे हुए सिसक पड़े थेे। गला रूँध गया था। एक बार फिर से उनका लिखा कागज का वह टुकड़ा, जो मृत रमुआ की जेब में पाया गया था, जिसे डाॅक्टर तिग्गा ने अभी-अभी उन्हंे दिया था, देखते हुए अपनी लिखी हिन्दी से उन्होंने कहा था - ‘‘मेरी माँ देखो कैसी विडम्बना है, तुम्हारे देश में मेरे हाथों जो दो हत्याएँ हुई है, उसका कारण ........’’ उनकी आवाज गले से उतरती हुई आत्मामें जा धंसी थी। हृदय दहाड़े मार बिलख उठा था। आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ा था। वे आँखे फाड़े कागज पर लिखे अपने हिंदी शब्दों की सार्थकता को ढुंढने लगे थे। उन्होंने सिसकते हुए उस कागज पर लिखी हिंदी को अपनी आँखों से निकलते आँसुओं पर ढंक लिया था। रमुआ का दर्द भरा चेहरा और बुधनी का चीखकर उसपर लुढ़कता शरीर उनकी पुतलियों में रूदन करने लगा था।
सीता राम शर्मा ‘चेतन’

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